भारत में मुहर्रम का इतिहास : शिया मुस्लिम समुदाय की संघर्षपूर्ण यात्रा और धार्मिक स्वतंत्रता की कहानी।

भारत में मुहर्रम का इतिहास : शिया मुस्लिम समुदाय की संघर्षपूर्ण यात्रा और धार्मिक स्वतंत्रता की कहानी -

1602 का साल था। मुगल बादशाह अकबर के दरबार में एक व्यक्ति प्रवेश करता है, और दरबारियों के हंसते-मुस्कुराते चेहरे पर मातम छा जाता है। वजह था वह नीला रुमाल जो उस व्यक्ति के हाथ में बंधा था। मुगल दरबार में यह नियम था कि किसी अजीज की मौत की खबर बादशाह को सीधे नहीं दी जाती थी, नीला रुमाल सब बयान कर देता था। उस दिन खबर आई थी ग्वालियर से। अकबर के नवरत्नों में से एक अबुल फजल की हत्या कर दी गई थी, और इसमें सीधा हाथ था मुगल शहजादे सलीम या कहें जहांगीर का। 


इस खबर से अकबर दुखी भी हुए और क्रोधित भी। हालांकि सबसे ज्यादा चिंता अकबर को दरबार में अबुल फजल के खास दोस्त काजी नसरुल्लाह सुस्तरी की थी। सलीम को अबुल फजल के साथ-साथ काजी से भी नफरत थी, इसलिए अकबर को डर था कि कहीं उनका भी वही हश्र न हो जाए।


काजी नसरुल्लाह सुस्तरी, जो ईरान से हिंदुस्तान आए थे, अबुल फजल की मौत की खबर सुनते ही ईरान लौटने की तैयारी करने लगे। हालांकि, अकबर के मनाने पर वे रुकने को तैयार हुए, लेकिन अकबर की मौत के बाद जब जहांगीर बादशाह बने, तो उन्होंने काजी नसरुल्लाह सुस्तरी को मौत की सजा दे दी।


काजी नसरुल्लाह सुस्तरी को शिया मुसलमान समुदाय में बड़ी इज्जत से देखा जाता है। उन्हें शहीद सालिस यानी तीसरा शहीद कहा जाता है। वह मुगल दरबार में बड़ा ओहदा पाने वाले पहले शिया मुसलमान थे। भारत में जब भी इस्लाम के इतिहास की बात होती है, दिल्ली सल्तनत और मुगलों की बात होती है। हालांकि दिल्ली सल्तनत और मुगलों के सारे राजा सुन्नी समुदाय से आते थे। काजी नसरुल्लाह सुस्तरी ने हिंदुस्तान में शिया पंथ के प्रचार-प्रसार में बड़ा योगदान दिया। उनके बाद ही भारत में शियाओं का उभार हुआ और बड़े स्तर पर मुहर्रम मनाने की शुरुआत भी हुई।


मुहर्रम का इतिहास - 


मुहर्रम इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है, जिसे शिया मुस्लिम समुदाय हजरत हुसैन और उनके साथियों की शहादत के रूप में मनाते हैं। कर्बला की जंग में हुसैन और उनके साथियों की हत्या कर दी गई थी, जो शियाओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।


कर्बला इराक का एक शहर है, जहां यह लड़ाई हुई थी। इस लड़ाई में हुसैन का परिवार और उनके साथियों ने प्यास और भूख से जूझते हुए भी यजीद की फौज का सामना किया और शहीद हो गए। इस घटना की याद में शिया मुस्लिम समुदाय हर साल मुहर्रम मनाता है। 


मुहर्रम का भारत में आगमन और विकास - 


भारत में मुहर्रम का आगमन मुगल काल में हुआ। हुमायूं के दौर में शियाओं की संख्या बढ़ने लगी, जब उन्होंने ईरान से मदद ली और उनके साथ शिया फौजी भी हिंदुस्तान में आए। हुमायूं ने शियाओं की धार्मिक परंपराओं का ख्याल रखा, जिसके चलते मुहर्रम मनाने की शुरुआत हुई।


अकबर के दौर में भी शियाओं का सम्मान किया गया और मुहर्रम मनाने की परंपरा जारी रही। शाहजहां के समय में भी यह परंपरा बनी रही। मुहर्रम की परंपरा, शिया मुसलमानों की संघर्षपूर्ण यात्रा और उनकी धार्मिक स्वतंत्रता की कहानी है। यह इतिहास दर्शाता है कि कैसे शियाओं ने मुगलों के दौर में अपनी धार्मिक परंपराओं को बनाए रखा और हिंदुस्तान में मुहर्रम मनाने की शुरुआत की। 


औरंगजेब और मुहर्रम - 


औरंगजेब के दौर में मुहर्रम के जुलूसों पर कई बार प्रतिबंध लगाया गया। हालांकि, मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद अवध में नवाबों के दौर में मुहर्रम को बड़ा महत्व मिला। लखनऊ, फैजाबाद और मुर्शिदाबाद जैसे शहरों में मुहर्रम के बड़े जुलूस का आयोजन हुआ। नवाब आसफ-उद-दौला के दौर में लखनऊ के मुहर्रम को विशेष प्रसिद्धि मिली। 


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